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दूर से चलकर आने वाले / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
दूर से चलकर आने वाले, मेरे घर कैसे आते।
और पड़ोसी जलने वाले, मेरे घर कैसे आते।
अपनी व्यथा कथा कहने वह आ जाते वक़्त बेवक़्त,
जब थे हम कुछ कहने वाले, मेरे घर कैसे आते।
जीवन भर जिसने बोये काँटे, औरों की राहों में,
हम ख़ुशबू के गहने वाले, मेरे घर कैसे आते।
देख ना पाए जो मौसम को वह क्या हाल बताएँगे,
औषधि बतौर टहलने वाले, मेरे घर कैसे आते।
धर्म बड़ा है इंसानों का, दुःख-सुख में काम आना ही,
ज़िन्दा इंसान निगलने वाले, मेरे घर कैसे आते।
मैं कुटिया में रहने वाला, वह महलों के वासी हैं,
राज महल के रहने वाले, मेरे घर कैसे आते।
दर्पण की क्या तुझे ज़रूरत, हाथ में तेरे कंगन है,
झूठ का रिश्ता रखने वाले, मेरे घर कैसे आते।