भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूसरी तरफ / असद ज़ैदी
Kavita Kosh से
कहीं भी दाखिल होते ही
मैं बाहर जाने का रास्ता ढूंढने लगता हूँ
मेरी यही उपलब्धि है कि
मुझे ऐसी बहुत जगहों से
बाहर निकलना आता है
जहाँ दाखिल होना मेरे लिए नहीं मुमकिन
कि मैं तेरह जबानों में नमस्ते
और तेईस में अलविदा कहना जानता हूँ
कोई बोलने से ज्यादा हकलाता हो
चलने से ज्यादा लंगड़ाता हो
देखने से ज्यादा निगाहें फेरता हो
जान लो मेरे कबीले से है
मेरी बीबी - जैसा कि अक्सर होता है
मुख्तलिफ कबीले की है
उससे मिलते ही आप उसके
मुरीद हो जाएंगे
देखना एक दिन यह बातूनी चुड़ैल
हँसते- हँसते मेरा खून पी जाएगी।