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दृगनीर / शुभा द्विवेदी

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टूटना जानते हो?
नहीं जानते न
न जाने कितनी बार
टूटती है एक स्त्री
कभी छू कर देखा है उसके आँचल की कोरों को
नहीं न
हमेशा भीगी ही रहती हैं
जाने कितना दृगनीर अवशोषित हो जाता है उसमे
कभी देखा है उसकी मुस्कराहट को
जिसकी आड़ लेकर छुपाती रहती है हर दर्द वो
उसकी आवाज की जो खनक सुनते हो न
न जाने कितनी बार घुटी हुई होती है वह आवाज
थाह नहीं है स्त्री हृदय की
अपार वेदनाओं के तूफ़ान झकझोरते हैं
प्रबल लहरें उठती हैं
परन्तु अंदर के कोलाहल के उलट एकदम
शांत सौम्य स्मित उभारती है अपने चेहरे पर
नकाबपोशों की दुनिया मेँ उसने भी ओढ़ लिया है एक नकाब
नहीं चाहती दया अपनों की टुकड़ों में
नहीं दिखाना चाहती वह कोई भी घाव
जो देते हैं उसके अपने
दृगनीर का मरहम लगाती स्त्री
मुस्कराती रहती हैं हर बार।