भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देख रही है माँ / यश मालवीय
Kavita Kosh से
जाती हुई धूप संध्या की
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ
भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अन बोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ
फूली सरसों नही रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेक रही है माँ
बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं, अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेक रही है माँ