भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़सार का / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़सार का
है मुताला मत्ला—ए—अनवार का
बुलबुल—ओ—परवाना करना दिल के तईं
काम है तुझ चेह्रा—ए—गुलनार का
सुब्ह तेरा दरस पाया था सनम
शौक़—ए—दिल मुह्ताज है तकरार का
माह के सीने ऊपर अय शम्अ रू !
दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का
दिल को देता है हमारे पेच—ओ—ताब
पेच तेरे तुर्रा—ओ—तर्रार का
जो सुनिया तेरे दहन सूँ यक बचन
भेद पाया नुस्ख़ा—ए—इसरार का
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़सार का
अय वली ! क्यों सुन सके नासेह की बात
जो दिवाना है परी रुख़सार का