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देखो / महादेवी वर्मा

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तेरी आभा का कण नभ को,
देता अगणित दीपक दान;
दिन को कनकराशि पहनाता,
विधु को चाँदी का परिधान।
करुणा का लघुबिन्दु युगों से,
भरता छलकाता नव घन;
समा न पाता जग के छोटे,
प्याले में उसका जीवन।
तेरी महिमा की छाया-छबि,
छू होता वारीश अपार;
नील गगन पा लेता घन सा,
तम सा अन्तहीन विस्तार।
सुषमा का कण एक खिलाता,
राशि राशि फूलों के वन;
शत शत झंझावात प्रलय—
बनता पल में भ्रू-संचालन।
सच है कण का पार न पाया,
बन बिगड़े असंख्य संसार;
पर न समझना देव हमारी—
लघुता है जीवन की हार!
लघु प्राणों के कोने में
खोई असीम पीड़ा देखो;
आओ हे निस्सीम! आज
इस रजकण की महिमा देखो!