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देश-काल गति कठिन / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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देश-काल गति
कठिन
उसी में हमको जीना है
हुईं बहुत बेदर्द हवाएँ
धरती सुलग रही
राजा का क्या दोष
नदी में यदि है राख बही
घाटों पर है
ज़हर बहा
परजा को पीना है
बस्ती-बस्ती विश्वहाट की
माया पसरी है
हुई इसी से पिता-पुत्र की
चिंता बखरी है
जाल फँसे जन
जो अबके
शाहों ने बीना है
तन्त्र-मंत्र हैं छली
देव का आसन है डोला
रस्ता मधुशाला का –
मन्दिर द्वार गया खोला
अमन-चैन सब
परजा का
नवयुग ने छीना है