देह / भाग 1 / शरद कोकास
दिन जैसा दिन नहीं था न रात जैसी थी रात
धरती की तरह धरती नहीं थी वह
न आसमान की तरह दिखाई देता था आसमान
बृह्मांड में गूँज रही थी
कुछ बच्चों के रोने की आवाज
सूर्य की देह से गल कर गिर रही थी आग
और नए ग्रहों की देह जन्म ले रही थी
अपने भाईयों के बीच अकेली बहन थी पृथ्वी
जिसकी उर्वरा कोख में भविष्य के बीज थे
और चांद उसका इकलौता बेटा
जन्म से ही अपना घर अलग बसाने की तैयारी में था
इधर आसमान की आँखों में अपार विस्मय
कि सद्यप्रसूता पृथ्वी की देह
अपने मूल आकार में वापस आने के प्रयत्न में
निरंतर नदी पहाड़ समंदर और चटटानों में तब्दील हो रही है
रसायनों से लबालब भर चुकी है उसकी छाती
और मीथेन, नाइट्रोजन, ओषजन युक्त हवाओं में सांस ले रही है वो
यह वह समय था देह के लिए
जब देह जैसा कोई शब्द नहीं था
अमीबा की शक्ल में पल रहा था देह का विचार
अपने ही ईश्वरत्व में अपना देहकर्ता था वह
जिसने हर देह में जीन्स पैदा किए
डी ऑक्सी राइबो न्यूक्लिइक एसिड अपनी सघनता में
रचते गए पाँव के नाखून से बालों तक हर अंग
जो हर सजीव में एक जैसे होते हुए भी कभी एक जैसे नहीं हुए
जो ठीक पिता की तरह उसकी संतानों में नहीं आए
और न संतानों से कभी उनकी संतानों में
शिशिर की सर्द रातों में हमारी देह में सिहरन पैदा करती
शीतल हवाएँ कल कहाँ थी
कल यही मिटटी नहीं थी नहीं था यही आकाश
आज नदी में बहता हुआ जल कल नहीं था
उस तरह देह में भी नहीं था वह अपने वर्तमान में
कहीं कुछ तय नहीं था कि उसका कौन सा अंश
किस देह में किस रुप में समाएगा
कौन सा अंश रक्त की बूंद बनेगा कौन सा माँस
पृथ्वी की प्रयोगशाला में
किस कोशिका के लिए कौन सा रसायन
उत्तरदायी होगा कुछ तय नहीं था
पंछियों की चहचहाहट और मछलियों की गुड़गुड़ाहट में
देह के लिए जीवन की वह पहली पुकार थी
कभी अंतरिक्ष से आती सुनाई देती जो
कभी समुद्रतलों के छिछले पानी से
आग्रह था जिसमें भविष्य की यात्राओं के लिए साथ का
देह और जीवन की सहयात्रा जो सहस्त्राब्दियों से जारी है
जहाँ एकाकार हो चली मनुष्य की शक्लों में झिलमिलाता है
किसी जाने पहचाने आदिम पुरखे का चेहरा
आज के मनुष्य की देह तक पहुँचने से पहले
जाने कितनी यंत्रणाओं से गुजरी होगी उसकी देह
किस तरह अपनी क्षमता और आश्चर्यों से उबरकर
दैहिक नियमों के सूत्र रचे होंगे उसने
किस तरह सिध्द की होगी देह में जीवन की उपयोगिता
कैसे गढे गए होगें स्त्री-पुरुष अंगों के अलग अलग आकार
और जीवन में उनकी भूमिका तय की गई होगी
आइने में अपने चेहरे पर तिल देखते हुए
क्या हम सोच सकते हैं हमारे किसी पूर्वज के चेहरे पर
ठीक इसी जगह रहा होगा ऐसा ही तिल
हमारे हँसने मुस्कराने खिलखिलाने में
हमारी किसी दादी नानी की मुस्कुराहट छिपी होगी
हमारे किसी परदादा के माथे पर
ठीक उसी जगह बल पडते होंगे
जिस तरह हमारे माथे पर पडते हैं
समय के आंगन में अभी कल तक तो थीं
हमारे विस्मृत पुरखों की परछाइयाँ
जो उनकी देह के साथ ही अदृश्य हो गईं
जानना तो क्या सोचना भी बहुत मुश्किल
कि वे ठीक हमारी तरह दिखाई देते थे
हमारे अवयवों की तरह हरकतें होती थीं जिनके अवयवों में
हमारे देहलक्षणों की तरह थे जिनके देहलक्षण
और उनका भी वही देहधर्म था जो आज हमारा है
एक पहेली है मनुष्य की यह देह
संत - महात्माओं वैज्ञानिकों और विचारकों के लिए
देह जो सदियों से स्वयं अपना हल ढूंढने की कोशिश में है
जो सजीवों की तरह जन्म लेती है
बढ़ती है अपने आसपास से आहार लेकर
पुनरुत्पादन की प्रक्रिया से गुजरती निरंतर
हर जिज्ञासु की आँख को आमंत्रित करती
अपनी अंधेरी गुफाओं और रहस्यमय घाटियों में
अपनी ओर खींचती है जो अपने अजनबीपन में
समाप्त होते ही आकर्षण जो ऊब पैदा करती है
इधर प्रयोगशाला में शीशे के मर्तबानों से झांकती भ्रूण देह
जिसे किसी देह ने ही दान किया होता है
अपने जन्म से पूर्व की कथा का बयान करती है
माइक्रोस्कोप के नीचे प्लेट में मुस्कराती हैं कोशिकाएँ
हमसे है जीवन हमीं से है देह
कोशिकाएँ जो सजीव हैं सजीव देह के भीतर
और निर्जीव बाहर इस देह के
फिर भी वे जन्म दे सकती हैं नई कोशिकाओं को
किसी आत्मा के सहयोग के बगैर ही
मोटी मोटी किताबों और रपट के पन्नों की
घुमावदार सीढ़ीयों से उतरती हैं कुछ शोधकथाएँ
कि देह का न जन्म संभव है एक बार में न मरण
जन्म के साथ जन्म लेती हैं कुछ कोशिकाएँ
बढ़ते अंगों के अनुपात में बढ़ती हैं
चांद बढ़ता है जैसे धूप बढ़ती है देह बढ़ती है
अपने चरम में होती है जो देह के चरम में
फिर पहाड़ की चोटी से उतरती देह की थकान में
धीरे धीरे दम तोड़ती है देह की कोशिकाएँ
अंगों के साथ छोड़ने की उम्र में साथ छोड़ती हैं
और एक दिन उसी देह के साथ मर जाती हैं
मस्तिष्क के घोंसले में बैठी इच्छाएँ भावनाएँ
देह के साथ मर जाती वासनाएँ मनुष्य की
और दोबारा कभी जन्म नहीं लेती हैं
फिर भी डरती है हर देह मरने से
और इस भय के चलते हर रोज़ मरती है
अजूबों का संसार है इस देहकोष के भीतर
अपनी आदिमाता पृथ्वी की तरह गर्भ में लिए कई रहस्य
आँख जिसे देखती है और बयान करती है जिव्हा
आँसुओं के अथाह समंदर लहराते हैं जिसमें
इसकी किलकारियों में झरने का शोर सुनाई देता है
माँसपेशियों मे उभरती हैं चटटानें और पिघलती हैं
हवाओं से दुलराते हैं हाथ त्वचा महसूस करती है
पाँवों से परिक्रमा करती यह अपनी दुनिया की
और वे इसमें होते हुए भी इसका बोझ उठाते हैं
अंकुरों से ऊगते रोम केश घने जंगलों में बदलते
बीहड़ में होते रास्ते अनजान दुनिया में ले जाने वाले
नदियों सी उमडती यह अपनी तरुणाई में
पहाडों की तरह उग आते उरोज
स्वेदग्रंथियों से उपजती महक में होता समुद्र का खारापन
होंठों पर व्याप्त होती वर्षावनों की नमी
संवेदना एक नाव लेकर उतरती रक्त की नदियों में
और शिराओं के जाल में उलझती भी नहीं
असंख्य ज्वालामुखी धधकते इसके दिमाग़ में
हदय में निरंतर स्पंदन और पेट में आग लिए
प्रकृति के शाप और वरदान के द्वंद्व में
यह ऋतुओं के आलिंगन से मस्त होती जहाँ
वहीं प्रकोपों के तोड़ देने वाले आघात भी सहती है
सिर्फ देह नहीं मनुष्य की यह वसुंधरा है
और इसका बाहरी सौंदर्य दरअसल
इसके भीतर की वजह से है
पृथ्वी की भीतरी सुरंगों में जब खदबदाता है लावा
मचल उठता है किसी क्षण फूट पड़ने के लिए
करोड़ों प्राणों का शोर लिए उठता है वह अपने साथ
जिसे अपने तल की गहराइयों में जगह देता है सागर
जिसके शांत जल से संयोग कर वह देह रचता है