देहों से जुड़े-जुड़े / महेश सन्तोषी
देहों से जुड़े-जुड़े
हमने बताये थे कभी
एक दूसरे को अपने पते, अपने नाम
सचमुच इतनी सन्दर्भहीन तो नहीं थी
तुमसे हमारी पहिचान।
कल जब तुमने हमें पहिचाना नहीं
परछाइयों से भी मिलीं तो कहा नहीं, नहीं
हमें लगा, हमारा कोई पता नहीं, नाम नहीं
किसी अजनबी की भी होती है
कोई पहिचान नहीं?
जब तुम्हें बांहों में भरे
समय ठहरा रहा, हम ठहरे रहे,
हर सुबह, हर शाम
तब अकारण ही नहीं
हंस पड़ते थे, हमारे तुम्हारे प्राण।
सचमुच इतनी सन्दर्भहीन तो नहीं थी...
अगर बदल गई ज़िन्दगियाँ
बदल गये साथ,
तो पिघला प्यार, अगले के आगे
कैसे हो गया पाप
बर्फ की परतों में भले ही दब गयी हैं,
कल तक दहकती सांसें
बर्फ की बर्फ भले ही जम गयी हैं,
सम्बन्धों के आसपास।
इन बर्फ से ढंके रिश्तों को अब कभी नहीं मिलेगी
तुम्हारी हथेलियों की धूप।
पर इतनी सस्ती तो नहीं थीं
हमारी सांसें
जो चूक गई तुम्हारे नाम।
सचमुच इतनी सर्न्दीाहीन तो नहीं थी...
जिन सम्बन्धों को कभी नहीं मिले
रोशनियों के आकाश,
जो अंधेरों में ही बने रहे
जलते चिरागों के पास।
हमारी देहों के वे पुण्य
हमारी देहों के वे पाप,
समय के गर्भ-से दबे हुए
गर्म सांसों के हिसाब।
सचमुच इतनी संदर्भहीन तो नहीं थी...