दैनन्दिन / अनुराधा महापात्र
घर से मुझे भागना ही है
इसीलिए सोच-सोच कर लौट आती हूँ —
घर मतलब मकान नहीं;
गैस अवन, ताला-चाबी, किताबें, कविता वग़ैरह।
झुग्गी-बस्तियों के प्रमाणीकरण की लिपियाँ,
निषिद्ध रोगों का इतिहास।
और मैदानी खेल में हारे शिशुओं की छवि।
कथामृत, बिरसामुण्डा और अन्तरंग प्रिय एलबम।
फिर भी शून्यता, फिर भी यह सिर पटकना!
मैं क्या माँ के पास चली जाऊँ?
अकरुण उत्तरपाड़ा में?
दक्षिणेश्वर की गंगा के किनारे
अकेली बैठकर बिता दूँ समूचा दिन?
या फिर नौकरी छोड़कर
छोड़कर विवाह और चुम्बन
कहीं बहुत दूर चली जाऊँ? एक दिन सुबह-सुबह —
किसी को पता नहीं चलेगा
मैं नहीं बताऊँगी अपना पता।
किसी को भी, किसी भी हालत में नहीं —
यही सोच-सोच कर
घर लौट आती हूँ —
समुद्र की लहरों से
यह केकड़ों की तरह लौट आना है
अन्तिम ऑक्सीज़न लेकर
घर लौट आना फिर से!
यहाँ लेटरबॉक्स में देखती हूँ
मकान का किराया बढ़ाने का
नोटिस आया हुआ है!
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी