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दो / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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दिन गुजरते जा रहे हैं, बस तुम्हारी याद में
गिन रहा हूँ उँगलियाँ के पोर पर
दिन आज कल करते
आ गया हूँ जिन्दगी के छोर पर

रात कटती है तो हल्की साँस होती है
उम्र की झोली से एक दिन कट गया
ना उमीदो पर हमारों आँखे रोती हैं
हाय! आधी उम्र गुजरी बस इसी अवसाद में
गगन से कितने सितारे गिर गए
देखता हूँ चाँद कितने
फेर-दे-दे फिर गए
जनमते-मरते मैंने देखा सूर को
बहुत कुछ देखा न पूछो
पास देखा दूर को
किन्तु जिसका देखता जी भर के होकर शाद में
वह न मिलती है तो दुनिया खाक है
मानता हूँ, मीत मुझको लाखो-लाख हैं
किन्तु इस जिद्दी जिगर का क्या बताऊँ
चाहता नभ का सितारा तोड़ना
बंध चूकी जो राश में कैसे रिझाऊँ
स्वप्न को मन में बिठा कर सोचता शायद मिलेगी बाद में