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दो अजनबी / मनीष मूंदड़ा
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दो अनजाने दो अजनबी
जब जि़न्दगी की राहों पर मिले
दोनों ने एक साथ बादलों को देखा
हवा के बहाव को महसूस किया
ठिठुरन भी थी दोनों के दिलों में एक सी
उनकी आँखों ने भी एक-सा सपना बुना
ख़ामोशी की चादर ओढ़े रातों में
एक-सी ख़्वाहिश थी दोनों के मन में
साथ जि़ंदगी गुजारने की
एक दूसरे के पूरक बन
कुछ अलग-सा करने की
जो कभी किसी ने सोचा नहीं
जो कभी किसी ने किया नहीं
वो दोनों बिलकुल एक से थे