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दो सदा सत्संग मुझको / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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दो सदा सत्संग मुझको।
अनृत से पीछा छुटे,
तन हो अमृत का रंग मुझको।
अशन-व्यसन तुले हुए हों,
खुले अपने ढंग;
सत्य अभिधा साधना हो,
बाधना हो व्यंग, मुझको।
लगें तुमसे तन-वचन-मन,
दूर रहे अनंग;
बाढ़ के जल बढ़ूं, निर्मल-
मिलूं एक उमंग, मुझको।
शान्त हों कुल धातुएँ ये,
बहे एक तरंग,
रूप के गुण गगन चढ़कर,
मिलूं तुमसे, ब्रह्म, मुझको।