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दो सॉनेट / अपअललोन ग्रिगोरिइफ़ / वरयाम सिंह

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1
प्रणाम तुझे, ओ दिवस की अन्तिम किरण,
ओ साँझ की सन्तान, विदाई का यह अन्तिम प्रणाम !
प्रकाश की तरह निर्मल, दिव्य पक्षी की तरह भारहीन,
मेरे रुग्न हृदय की सहोदर नहीं हो तुम ।

पवित्र कष्टों, नियति-प्रेरित इच्छाओं की पुजारिन को
तुम में ढूँढ़ रहा है मेरा मन
सुन्दर सपनों में तुम्हारा शिशु-मुख
चमकता है जैसे महारानी का स्वाभिमान ।

यह मात्र सपना था, हंसते हुए, मुस्कुराते हुए
एक और दुखदायक त्रुटि द्वारा देखा गया
जीवन की पुस्तक में एक और पृष्ठ नया-नया ।

लेकिन, ओ शिशु, मैं निष्कलंक हूँ तुम्हारे सामने ...
मैं पुजारी था, दूत था ईश्वर का
स्वयं शिकार था, कम नहीं झेले हैं कष्ट मैंने ।

2
ओ, याद करना जब धोखा दें तुम्हें
सपनों और पँखधारी प्रेतात्माओं में रखा विश्वास,
बिना इच्छा के उदासी में दबे होंठों पर
कुण्डली मारकर बैठी दुष्टता का अट्टाहास ।

ओ, भले ही, तुम्हारा मन याद करने लगे तब उसे
जिसकी वाणी भरी थी हंगामे और व्याभिचार के शब्दों से,
गूँजती थी जो तुम्हारे लिए, भले ही, बड़े भाई की तरह
खड़ा होता जो तुम्हारे सामने निर्दोष सिद्ध होकर आरोपों से ।

ओ, याद करना ... उसे विश्वास है, निर्दोष सिद्ध हो जाएगा वह,
उसे प्राप्त है वरदान तुम्हारे भविष्य को जानने का,
ज्ञान है उसे पीड़ा की तुम्हारी समझ का ।

कि उसकी तरह तुम भी घृणा करने लगोगी,
भले ही इष्वर ने रचा है तुम्हें प्यार करने के लिए,
दुख के क्षणों में देवदूत को याद करने लगोगी ।

 1 दिसम्बर 1845

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

और लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
           Аполло́н Григо́рьев
                  Два сонета
1

Привет тебе, последний луч денницы,
Дитя зари, — привет прощальный мой!
Чиста, как свет, легка, как божьи птицы,
Ты не сестра душе моей больной.

Душа моя в тебе искала жрицы
Святых страданий, воли роковой,
И в чудных грезах гордостью царицы
Твой детский лик сиял передо мной.

То был лишь сон… С насмешливой улыбкой
Отмечен в книге жизни новый лист
Еще одной печальною ошибкой…

Но я, дитя, перед тобою чист!
Я был жрецом, я был пророком бога,
И, жертва сам, страдал я слишком много,

2

О, помяни, когда тебя обманет
Доверье снам и призракам крылатым
И по устам, невольной грустью сжатым,
Змея насмешки злобно виться станет!..

О, пусть тогда душа твоя помянет
Того, чьи речи буйством и развратом
Тебе звучали, пусть он старшим братом
Перед тобой, оправданный, восстанет.

О, помяни… Он верит в оправданье,
Ему дано в твоем грядущем видеть,
И знает он, что ты поймешь страданье,

Что будешь ты, как он же, ненавидеть,
Хоть небеса к любви тебя создали, —
Что вспомнишь ты пророка в час печали.

1845 г.