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दोपहर के अलसाये पल / पाब्लो नेरुदा
Kavita Kosh से
तुम्हारी समन्दर-सी गहरी आँखों में,
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी में
उन जलते क्षणों में, मेरा एकाकीपन,
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह
लाल दहकती निशानियाँ, तुम्हारी खोई आँखों में,
जैसे "दीप ~ स्तम्भ" के समीप, मँडराता जल !
मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावोँ मेँ उभरा यातनोँ का किनारा-
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ -
उस दरिया में , जो तुम्हारे नैया से नयनों में कैद है !
रात के पंछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैँ -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैं !
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है ,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरोँ को छोडती हुई !
अंग्रेज़ी से अनुवाद : लावण्या