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दोल-दोलिच्चा / सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर'

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कैसें खेलौं दोल-दोलिच्चा, नै झलकै छै बाग बगिच्चा
आम जामुन लं तरसी गेंलऽ, पहिने लटकल घुच्छा-घुच्छा,
कहाँ मं खेलबै ढोल-दोलिच्चा।

परदूषण के कारन गर्मी गाछऽ केपत्तो नै डोलै
अधमरुओं सन कोयल कौवा, उ नै मू सं कू-कू बोलै
गरजै छीलऽ रमुआ बीनवा, सबके बोली गुमें होलैं
अन्धर अैतै कन्ने जैते, गाँव घरऽ के बुतरु-बच्चा।
कहाऽ मं खेलबै ढोल-दोलिच्चा।

आक्सीजने पर टिकलऽ शान, जहिया घटतं जैतै जान
गाछे सेॅ आक्सीजन दैछै, सब जीवऽ कं छीकै प्राण
इ रहतै तं सब कुछ चलतै, चटनी, गुड़म्मा, पक्का, कच्चा,
कहाँ मं खेलबै ढोल-दोलिच्चा।

जहॉ मेॅ हरिहर-गाछ, वहॉ न कहियऽ पोलियऽ पाछ
गाय, भैस, बकरी सब मोटऽ, दूध दही घी आरु छाछ
हेकरा नै कविता समझऽ, बात छै एकदम सच्चा-सच्चा।
कहाँ म खेलबै ढोल-दोलिच्चा। नै लकै छै बाग बगिच्चा।