दोहा / भाग 4 / रसलीन
जो रसलीन तियान में, रहे विचित्र कहाय।
ते पाहन पुतरी भये, लखि तब पुतरी भाय।।31।।
कोयन सर जिनके करे, सीय न राखे ठौर।
को इन लोयन ना हन्यो, कोयन लोयन जोर।।32।।
रे मन रीति बिचित्र यह, तिंय नैनन के चेत।
विष काजर निज खाय के, जिय औरन के लेत।।33।।
तिय काजर कोरें बढ़ी, पूरन किय कवि पच्छ।
लखियत खंजन पच्छ की, पुच्छ अलच्छ प्रतच्छ।।34।।
अंजन गुन दौरत नहीं, लोयन लाल तरंग।
कोरन पगि डोरन लगत, तुव पोरन को रंग।।35।।
राते डोरन तें लसत, चख चंचल इहि भाय।
मनु बिधि पूनो अरुन में, खंजन बाँध्यो आय।।36।।
गहि दृग मीन प्रवीन की, चितवन वंसी चारु।
भव-सागर में करत हैं, नागर नरन सिकारु।।37।।
औचकही मोतन चितै, दीठ खींच जब लीन।
बिधन निसारन बान लौं, दोऊ बिध दुख दीन।।38।।
बान बेधि सब बधे को, खोज करत हैं जाय।
अद्भुत बान कटाक्ष जिहिं, बध्यो लग्यो सँग जाय।।39।।
मुकुर बिमलता चन्द दुति, कंज मृदलता पाय।
जनम लेइ जो कंबुतें, लहे कपोल सुभाय।।40।।