दोहा / भाग 7 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम
मुख छपाइ सकुचाइ कछु, अरु कँपाय भुजमूल।
इन्दीवर नैननि लखत, कान्ह कलिन्दी कूल।।61।।
कान्ह कान्ह आन मुख आन नहिं, कौन परी यह बान।
तू जानत ही जान हौं, सब जग जान-अजान।।62।।
नाम सु मोहनलाल कौ, सबै कहत चित-चोर।
चोरन की चोरी करत, री तेरे दृग जोर।।63।।
लोकलाज खाई खुदी, घूँघट पट की ओट।
हरदफ बेधत हेर हिय, ज्यौं हरदफ की चोट।।64।।
जोबन छाक छकी रहत, मद के मद उमहात।
कहति नटति रोझति खिझत, हँसति झकति झहरात।।65।।
आवत लखि ऋतुराज को, समुझि सुखन को मूल।
फूलि भई माँलिन हियै, लखि गुलाब कौ फूल।।66।।
अपत करी बन की लता, जपत करी दु्रम साज।
बुध बसन्त द्वौ कहत हैं, कहा जानि ऋतुराज।।67।।
बंशी धुन स्रवनन सुनत, अंग अनंग मरोर।
चित्र लिखी सी ह्वै रही, चकित चितै चहुँ ओर।।68।।
सहज पोस जरपोस करि, लीनो लाल लुभाइ।
भाइ भाइ फिर भाइ करि, करति घइ पर घाइ।।69।।
अंग अंग आभा दृगनि, निरखति तजत न भौन।
निज पलकन दूषित रहत, पिय सुभाय यह कौन।।70।।