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दोहा / भाग 8 / जानकी प्रसाद द्विवेदी

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ऐसे में कवि जानकी, निज सम्पति तूँ खोय।
अरे बटोही बावरे, गाफिल होय न सोय।।71।।

कर ले यह कवि जानकी, चार दिना को चाय।
फिर तो बहना ही अहै, जलसा-जल सा भाय।।72।।

जिहि के मातुल हरि रहे, पिता इन्द्रसुत आय।
तिन देखत कवि जानकी, काल गयो तिहि खाय।।73।।

जरा सुभट रुज सैन लै, ज्योंही पहुँचो आय।
यौवन नृप कवि जानकी, भाज्यो तज पुर काय।।74।।

अरे मीत कवि जानकी, होय रहौं हुशियार।
छवि मुकता लूटन लगे, आय जरा बट पार।।75।।

अरे मूढ़ कवि जानकी, अजहुँ सोच लै जीय।
कहा ऊजरे कच भये, करै ऊजरौ हीय।।76।।

एक दिना कवि जानकी, जब मरना ही आय।
तब हँसते हँसते मरौ, रोते मरो न भाय।।77।।

कुसुम खिले कवि जानकी, आज मनोहर जौन।
पवन लगे कल धूल में, पतित होंयगे तौन।।78।।

आ कर के कवि जानकी, या असार संसार।
एक बार फल फूल के, को न भयो पतझार।।79।।

दिन बीतत कवि जानकी, पौढ़त-पौढ़त यार।
चिता पौढ़बे के लिए, होय रहौ तइयार।।80।।