दोहा / भाग 9 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम
सजि सिंगार आनन्द मढ़ी, बढ़ी सरसंऊछाह।
रंग महल फूली फिरति, चिंतनत मग चित चाह।।81।।
उदित उमँग अनंग बर, उर उमग्यौ अनुराग।
सजत सेज भूषन बसन, अंग अंग अँगराग।।82।।
भौहैं तान कमान बर, नैन सरन कर साधि।
गहि राख्यौ मन लाल कौं, अलक जँजीरनि बाँधि।।83।।
चंदमुखी मुख चंद की, दई छटा छुटकाइ।
रहौ चाँदनी चौक मैं, चारु चाँदनी छाइ।।84।।
सटकारे कारे सरल, लसत सुहाए बार।
देखहु बलि चछि औचका, नवल बधू सुकुमार।।85।।
तनदुति लखि लाजति तड़ित, भाजतधन छपि जात।
छवि छाजत राजत खरी, नये नेह सरसात।।86।।
कुंजन लौं नव नलिन की, कली रही फबि फैल।
कीनी गरक गुलाब सौं तिन कुंजन की गैल।।87।।
पहिरि सेत सारी सरस, चन्दन चर्चित देह।
चन्द्र उदै लखि चन्द्रमुख, बिहँसि चली पिय-गेह।।88।।
ललन चलन सुनि पलन मैं, आइ गयो बहुनीर।
अधखंडित बीरी रही, पीरी परी सरीर।।89।।
चितवत घूँघट ओट ह्वै, गुरुजन दीठि बचाइ।
स्रवन सुनत प्रीतम गमन, अगमन गई ससाइ।।90।।