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दोहा सप्तक-26 / रंजना वर्मा

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स्वार्थ भरे संसार मे, मतलब के सब मीत।
उदित अगर सौभाग्य हो, मिलती सच्ची प्रीत।।

ब्रह्म कमंडल से चली, हरि नख रही समाय।
चरणामृत श्री विष्णु का, शिव के शीश सुहाय।।

ओस - बिंदु करने लगे, फूलों का सिंगार।
रश्मि रथी का आगमन, धरा लुटातीं प्यार।।

कोहरे के पीछे कहीं, रवि ने किया पड़ाव।
कोई बढ़ कर रोक दे, बढ़ता ठंढ प्रभाव।।

सूरज को लगती भली, अब प्राची की गोद।
ओढ़े चादर धुन्ध की, नित्य मनाये मोद।।

धाम अत्रि के प्रभु गये, लखन सिया के साथ।
पुलकित ऋषि अस्तुति करें, झुका नमन हित माथ।।

घोल रहे हैं प्रेम - रस, जो जीवन के बीच
दोनों हाथों से सदा, उन पर प्यार उलीच।।