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दोहा सप्तक-27 / रंजना वर्मा
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घोल प्रेम - पीयूष जो, रहे जिंदगी सींच।
कभी न उनको गैर कह, रख बाहों में भींच।।
कान पड़ा हरि का भजन, शुद्ध हुए मन प्राण।
दुनियाँ के सब दोष अघ, से मिल जाये त्राण।।
जन कर जीवन पालती, दे कर अमृत धार।
माँ से उऋण नहीं कभी, देव मनुज संसार।।
देर जान कर छिप गयी, संझा माँ की कोर।
मोती माला टूट कर, बिखरी चारो ओर।।
सांध्य - सुंदरी कण्ठ की, टूटी मुक्ता - माल।
बिखरे मोती देख कर, क्षितिज रोष से लाल।।
चन्द्र सुता को गोद ले, कर आँचल की छाँव।
ढूंढ़ रही है यामिनी, अपना खोया गाँव।।
हो उद्धार समाज का, जीवन सुख सम्पन्न।
सुखी रहें सब लोग हो, कोई नहीं विपन्न।।