भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा सप्तक-37 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानुष जो बेकार ही, करता वाद विवाद।
ऐसे मानव से कभी, उचित नहीं संवाद।।

खास बात यह जानिये, मनमोहन के द्वार।
जाने पर होता नहीं, कभी यत्न बेकार।।

नाथ आपसे है विनय, रहे कृपा की कोर।
दया दृष्टि रघुनाथ की, सदा दीन की ओर।।

पल पल जो भगवान को, रखे हृदय के पास।
मन की दुर्बलता उसे, नहीं बनाती ग्रास।।

रात रात भर जाग कर, किया तुम्हे ही याद।
अब आ जाओ श्याम घन, जीवन हो आबाद।।

उन के सदा ललाट पर, रहे आस की रेख।
जो न कभी ईर्ष्या करें, पर सम्पति को देख।।

निशि दिन हैं बदनाम वे, जो न करें सत्कर्म।
मुक्ति दुखों से भी नहीं, करें सदा दुष्कर्म।।