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दोहा सप्तक-39 / रंजना वर्मा
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अविरल धारा गंग की, इतना तो कर ध्यान।
दूषित जल को कर रहा, यह कैसा अज्ञान।।
आकर तेरे द्वार पर, ब्राह्मण रहा पुकार।
बालेपन की मित्रता, करो श्याम उद्धार।।
कृष्ण कृष्ण कहते रहो, जब तक तन में प्राण।
सुन ले जिस दिन सांवरा, मिले कष्ट से त्राण।।
नया साल दिखला रहा, नया नया है जोश।
भूल न जाये पर विगत, रखना इतना होश।।
ले कर के खुशियाँ अमित, आया नूतन वर्ष।
मिले न दुख का लेश भी, पायें नित उत्कर्ष।।
अर्णव में उठने लगा, अब तो भीषण ज्वार।
क्या होगा इस नाव का, अब पतवार सँभार।।
माटी की इस देह में, चिन्मय केवल ईश।
आत्मोद्धारक है वही, विश्ववन्द्य जगदीश।।