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दोहा सप्तक-48 / रंजना वर्मा

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आँगन में खिंचने लगी, जब से है दीवार।
तन मन घायल हो गया, झूठ लगे संसार।।

श्वांस श्वांस गिरवी हुई, जीवन हुआ उधार।
निपट गरीबी में रुचे, कैसे यह संसार।।

करी मित्रता श्याम ने, द्विज को कण्ठ लगाय।
देख रंकता मित्र की, वैभव दिया लुटाय।।

दृष्टि उठा जग देखिये, भाँति भाँति के लोग।
कहीं मिलन में वेदना, सुखमय कहीं वियोग।।

शोर बढ़ रहा शहर में, जीना हुआ मुहाल।
ऊँचा है सुनने लगे, अब गोदी के लाल।।

मिले चैन भरपूर तब, रहे हवा जब शुद्ध।
जले पराली अब नहीं, कहते सभी प्रबुद्ध।।

शूल चुभाती देह में, ठंढी शीत बयार।
रोक नहीं पाती हवा, ऐसी पड़ी दरार।।