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दोहा सप्तक-57 / रंजना वर्मा

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हरनन्दी गन्दी हुई, मैला सरिता नीर।
यमुना जी के देश में, फूट गयी तकदीर।।

अभी अभी फागुन गया, देकर रूप अनूप।
सूरज बरसाने लगा, कैसी तीखी धूप।।

बार बार मुख धो रही, बही पसीना धार।
छूती तन को धूप ज्यों, छू जाता अंगार।।

नभ ने नयन फिरा लिये, बरसा कर दो बूँद।
पानी पानी टेरती, धरती आँखें मूंद।।

चन्दन सा तन गन्धमय, आँचल बसी सुवास।
रंगमहल सी देह में, नैना करें प्रकाश।।

फूली सरसों देह पर, पाटल अवनत गाल।
चुटकी मादक प्यार की, हुई लाज से लाल।।

नयन नीर नीरज खिले, अधर खिले कचनार।
छुई मुई गोरी हुई, छेड़ गया फिर प्यार।।