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दोहा सप्तक-96 / रंजना वर्मा

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आँगन के इस ओर हम, तुम आँगन के पार।
वैमनस्य ने खींच दी, है मन में दीवार।।

आँचल को छू कर गया, चंचल चपल समीर।
अब तो आ जा साँवरे, मन यमुना के तीर।।

कब कब दुर्घटना हुई, कहाँ आ गयी बाढ़।
धन के लालच में हुए, सब सम्बन्ध प्रगाढ़।।

तब न सुरक्षा दे सकी, अब करती उपकार।
मृतकों की कीमत लगी, है देने सरकार।।

पेट पकड़ माँ रो रही, पत्नी छाती कूट।
पाने हेतु मुआवजा, स्वजन मचाते लूट।।

योग सदा से ही करे, जीवन का उत्थान।
सतत दिलाये जगत में, मां और सम्मान।।

तन मन का मस्तिष्क से, जब होता है योग।
आत्म तत्व से जीव का, तब होता संयोग।।