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दोहाइ हे इन्द्र महाराज! / यात्री
Kavita Kosh से
उपजत
मोनक खेतमेँ
अगबे कुंठाक फसिल
लागत
सृष्टिक क्रम-पात
आद्यनत बिल्कुल जटिल
झहरत
राति - दिन, सदक्षण
निराशाक कारी - कारी मेघ
लटकत
बढ़ल जाएत नहू - नहू
आवंछित असफलताक घेघ
मिझैत
प्रीतिक मधूर आँच
भेल जाएत सुरूचि नष्ट
मेटैत
बढ़िमका रेख तरहत्थीक
बढ़ल जाएत नानाविध कष्ट
सूझत
हँ, आन किच्छु टा नहि
भासित हैत मात्र त्रास - महात्रास
बूझत
सगरो जहान मतिक्षिप्त
मूह दूसत धुआँठल आकाश
ससरत
दोहाइ हे इन्द्र महाराज!
हिलाउ जुनि अपन कुंडल
उनटत
उनटित जाएत सरिपहुँ
हमरा लेखेँ समग्र भू—मंडल