भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 16

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 151 से 160

चारि चहत मानस अगम चनक चारि को लाहु।
चारि परिहरें चारि को दानि चारि चख चाहु।151।

सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति।152।

बेष बिषद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन।153।

बषन बेष तें जो बनइ से बिगरइ परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनइ बनी बनाई राम।154।

नीच मीचु लै जाइ जो राम रजायसु पाइ।
 तौ तुलसी तेरो भलो न तु अनभलो अघाइ।155।

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि।।156।

बंधु बधू रत कहि कियो बचन निरूत्तर बालि।
तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि।157।

बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीब निवाज।158।

कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा बिगार्यो बालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि सब िदन आए पालि।159।

तुलसी कोसलपाल सो को सरनागत पाल।
भज्यो बिभीषन बंधु भय भ्ंाज्यो दारिद काल।160।