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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 25

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दोहा संख्या 241 से 250


और करै अपरधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु।241।

 प्रेम सरीर प्रपंच रूज उपजी अधिक उपाधि।
तुलसी भली सुबैदई बेगि बाँधिऐ ब्याधि।242।

हम हमार आचार बड़ भूरि भार धरि सीस।
हठि सठ परबस परत जिमि कीर कोस कृमि कीस।243।

केहिं मग प्रबिसति जाति केहिं कहु दरपनमें छाहँ।
तुलसी ज्यों जगज ीव गति करी जीव के नाहँ।244।

सुखसागर सुख नींद बस सपने सब करतार।
माया माया नाथ की को जग जाननिहार।245।

जीव सीव सम सुख सयन सपनें कछु करतूति।
 जागत दीन मलीन सोइ बिकल बिषाद बिभूति।246।

सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ।247।

तुलसी देखत अनुभवत सुनत न समुझत नीच।
चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच।248।

करम खरी कर मोह थल अंक चराचर जाल।
हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत ज्यौतिषी काल।249।

कहिबे कहँ रसना रची सुनिबे कहँ किये कान ।
धरिबे कहँ चित हित सहित परमारथहि सुजान।250।