भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 34

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 330 से 340


माखी काक उलूक बक दारुर से भये लोग।
भले ते सुक कपक मोरसे कोउ न प्रेम पथ जोग।331।

 हृदय कपट बर बेष धरि बचन कहहिं गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिए मन खोलि।332।

चरन चोंच लोचन रँगौ चलौ मराली चाल।
छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल।।

मिलै जो सरलहि सरल ह्वै कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति ब्याल न बिलहिं समाइ।।

कूसधन सखहि न देब दुख मुएहुँ न मागब नीच।
तुलसी सज्जन की रहनि पावकपानी बीच।।335।

संग सरल कुटिलहि भएँ हरि हर करहिं निबाहु ।
ग्रह गनती गनि चतुर बिधि कियो उदर बिनु राहु।।

नीच निखई रनहिं तजइ सज्जनहू कें संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि बिनु बिष भए न भुअंग।337।

भलो भलाइहि पै लहै लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु।338।

मिथ्या माहुर सज्जनहि गरल सम साँच।
तुलसी छुअत पराइ ज्यों पारद पावक आँच।339।

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान कदग्रंथ।340।