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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 57

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दोहा संख्या 561 से 573



 प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।561।


कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।562।


श्रवन घटहुँ पुनि दृग घटहुँ घटउ सकल बल देह।
 इते घटें घटिहै कहा जौं न घटै हरिनेह।563।


तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमें पुछिहै कौन।564।


कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि ईधन अनल प्रचंड।565।


कलि पाषंड प्रचार प्रबल पाप पावँर पतित।
तुलसी उभय अधार राम नाम सुरसरि सलिल।566।


रामचंद्र मुख चंद्रमा चित चकोर जब होइ।
राम राज सब काज सुभ समय सुहावन सोइ।567।


 बीज राम गुन गन नयन जल अंकुर पुलकालि।
 सुकृती सुतन सुखेत बर बिलसत तुलसी सालि।568।


 तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीता राम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम।569।


 पुरूषारथ स्वारथ सकल परमारथ परिनाम।
सुलथ सिद्धि सब साहिबी सुमिरत सीता राम।570।
 

 मनिमय दोहा दीप जहँ उर घर प्रगट प्रकास।
तहँ न मोह तम भय तमी कलि कज्जली बिलास।5711।


का भाषा का संसकृत प्रेम चाहिऐ साँच।
काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच।572।


 मनि मानिक महँगे किए सहँगे तृन जल नाज।
तुलसी एते जानिऐ राम गरीब नेवाज।573।


(इति गोस्वामी तुलसीदास रचित दोहावली)