दोहे-3 / राम नाथ बेख़बर
51
दुख के आँसू पीजिए, सहते रहिए कष्ट। 
अपने हाथों मत कभी, करिए जीवन नष्ट॥
52
निकल-निकल कर डाल से, नये-नये कुछ पत्र। 
ढक देते हैं डाल को, बनकर सुन्दर छत्र॥
53
फाँस रहा है आजकल, देकर झूठी नेह। 
उसको तो बस चाहिए, हाड़-मांस की देह॥
54
धीरे-धीरे मर रहा, मन मंदिर का प्यार। 
दिन दिन ऊँची हो रही, नफरत की दीवार॥
55
जितना तेरे पास है, उतना पहले भोग। 
यही सिखाते हैं सदा, मेरे घर के लोग॥
56
मन मंदिर में दफ़्न है, मन की टुच्ची चाह। 
मैं चलकर जाता वहीं, जहाँ बन्द है राह॥
57
तुलसी बाबा कह गये, कहकर गये कबीर। 
लिख तू अपने हाथ से, अब अपनी तक़दीर॥
58
फल भी देते फूल भी, देते शीतल छाँव। 
तरुवर के उपकार से, सुन्दर दिखते गाँव॥
59
तुमसे मिलकर आज कल, जाग रहा अनुराग। 
प्रातः कजरी गा रही, सांझ है गाती फाग॥
60
जब पाँवों की हो गयी, पर्वत जैसी पीर। 
टूट गयी खुद आप ही, पैरों की जंजीर॥
61
बच्चा बिस्तर छोड़कर, लगा मचाने शोर। 
सूर्य कहीं दिखता नहीं, कैसे होगी भोर॥
62
चाँद सितारे बैठकर, लगे हाँकने गप्प। 
नील गगन के काज सब, पड़े हुए हैं ठप्प॥
63
बचपन गुजरा खेल में, गई जवानी व्यर्थ। 
समझ न पाया आज तक, मैं जीवन का अर्थ॥
64
धमा चौकड़ी कर रही, बदल-बदल के रूप। 
पसर रही अब खाट पर, घूँघट खोले धूप॥
65
साबित करने में लगे, हम सब खुद को बुद्ध। 
मगर कहाँ हैं कर सके, मन का मंदिर शुद्ध॥
66
हवा चमन से कर रही, फिर-फिर यही सवाल। 
कौन फूल के गाल पर, मल कर गया गुलाल॥
67
देख अचंभित हो रहे, आसमान में अब्र। 
जुगनू मिलकर खोदते, सूर्य देव की कब्र॥
68
कोपभवन में है हवा, दुपहरिया है मौन। 
सूरज के अभिशाप से, प्राण बचाये कौन॥
69
कंद, मूल देकर सदा, करते हैं सहयोग। 
फिर भी जिंदा पेड़ को, काट रहे हैं लोग॥
70
बूढ़ा पीपल गाँव का, कहता है हर रोज। 
देता हूँ हर सांस को, मैं तो बूस्टर डोज॥
71
कितना प्यारा लग रहा, गंगा जी का घाट। 
रोज़ बिछाती हैं यहाँ, सुंदरता जी खाट॥ 
72
औरत जूती पाँव की, कहते हैं जो लोग। 
उनको शायद है लगा, मन का कोई रोग॥
73
मख़मल का बिस्तर उसे, क्यों देता आराम। 
भरी चैत की धूप में, जिसने पूजा काम॥
74
चिंता चिता समान है, कहते आये लोग। 
मगर पालते आ रहे, युग-युग से यह रोग॥
75
आया मुखिया गाँव का, लूट लिया खलिहान। 
धरती पर भूखा रहा, धरती का भगवान॥
	
	