दोहे - 3 / शोभना 'श्याम'
बसंती इस भोर का, खिला खिला-सा रूप।
झुके झुके से मेघ हैं, शरमाई-सी धूप॥
नयी सदी तो बन गयी, पीपल का वह पेड़।
खंडित मूल्यों का लगा, जिसके नीचे ढेर॥
उतना ऊंचा पद मिले, जितना छोटा ज्ञान।
ऊपर पानी के तिरे, जैसे थोथी धान॥
शीशे के शो पीस सी, महानगर की शान।
रात जगे दिन सो रहे, उल्लू-सा इंसान॥
देखी रौनक शहर की, पीछे दौड़ा गाँव।
ठोकर खा औंधा गिरा, ज़ख़्मी हो गए पाँव॥
न शुभ दर्शन सूर्य का, ना ही भजन सुहाय।
सुबह शहर की मांगती, सबसे पहले चाय॥
न शुभ दर्शन सूर्य का, ना ही भजन सुहाय।
सुबह शहर की मांगती, सबसे पहले चाय॥
रात बिचारी ऊँघती, हुई नींद से पस्त।
व्हाट्सएप के फेर में, सभी फ़ोन में मस्त॥
मन्दिर अब जाते नहीं, मोबाइल टू मीट।
सुबह देव प्रेषित हुए, रात्रि हुए डिलीट॥
विह्वल होकर शहर ने, लिया कलेजा थाम।
इक्कल-दुक्क्ल खेलती, मिली उसे इक शाम॥
रिश्ते ताज़े फूल से, घर में भरे सुगंध।
सड़ें यही जब पात्र में, फैलाएँ दुर्गन्ध॥