दोहे / महेंद्र नेह
तू बामन का पूत है, मेरी जात चमार
तेरे मेरे बीच में, जाति बनी दीवार ।।
वो ही झाड़ू हाथ में, वही तगारी माथ ।
युग बदले छूटा नहीं, इन दोनों का साथ ।।
हरिजन केवल नाम है, वो ही छूत अछूत ।
गांधी चरखे का तेरे, उलझ गया है सूत ।।
अब मज़हब की देह से, रिसने लगा मवाद ।
इंसानों के क़त्ल का, नाम हुआ जेहाद ।।
फिर मांदो में भेड़िये, फिर से बिल में साँप ।
लोकतन्त्र में जुड़ रही, फिर पंचायत खाप ।।
घोड़े जैसा दौड़ता, सुबह शाम इंसान ।
नहीं चैन की रोटियाँ, नहीं कहीं सम्मान ।।
फ़ुटपाथों पर चीख़ता, सिर धुनता है न्याय ।
न्यायालय में देवता, बन बैठा अन्याय ।।
सत्ता पक्ष-विपक्ष हैं, स्विस-खातों में दोय ।
काले-धन की वापसी, आख़िर कैसे होय ।।
जिसने छीनी रोटियाँ, जिसने छीने खेत ।
वोट उसी को दे रहे, कृषक मजूर अचेत ।।
कहने को जनतन्त्र है, सच में है धनतन्त्र ।
आज़ादी, बस, नाम की, जन-गण है परतन्त्र ।।
चिन्दी-चिन्दी बीनती, फिर भी नहीं हताश ।
वह कूड़े के ढेर में, जीवन रही तलाश ।।
चलो चलें फिर से करें, नवयुग का आगाज़।
लहू-पसीने से रचें, शोषण-हीन समाज ।।