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दौड़ / प्रदीप मिश्र
Kavita Kosh से
दौड़
एक समय था जब
खुद से पीछे छूट जाने के भय से
दौड़ते रहते थे हम
और जब मिलते थे खुद से
खिल उठते थे
चांदनी रात में चांद की तरह
अंतस में
झरने लगता था मधु
अब आगे निकल गए
दूसरों के पीछे दौड़ते रहते हैं
इस तरह खुद से इतना दूर
निकल जाते हैं कि
जीवनभर हाँफते रहते हैं
और अमावस की स्याही
टपकती रहती है
अंतस की झील में ।