द्रुपद सुता-खण्ड-03 / रंजना वर्मा
वसुधा फटे जो काश इस में समाउँ आज
कैसे दिखलाऊँ मुख राज के समाज को।
एकवस्त्रा दुखिया मैं कठिन समय ऐसा
सोच ही न पाऊँ कैसे रखूँ निज लाज को।
सारे गुरुजन मौन बैठेहैं स्वजन सारे
वीरता बचायी निज जाने किस काज को।
नारी मैं बिचारी आज ऐसी दुखियारी हूँ तो
आग लग जाये ऐसे भूपति के राज को।। 7।।
आये सभी राजा महाराजा युवराज कई
सजे शुभ साज आये मुझे थे रिझाने को।
त्रिभुवन जय सी लजीली थी लुभावनी मैं
जीत के स्वयम्बर थे आये मुझे पाने को।
हार थके नृप सब, शकुनि सुयोधन भी
करण ने भी माना सूत-सुत के बहाने को।
लक्ष्य वेध प्रण पूरा किया था पिता का पार्थ !
लाये जीत मुझे दिन यही क्या दिखाने को।। 8।।
बोलें धर्मराज ! किये धर्म के सदा ही काज
बन के युधिष्ठिर डिगे न कभी युद्ध से।
शकुनि कुचाली की कुचालें क्यों न जान सके
हुएनिर्बुद्धिकैसेतुमतोप्रबुद्ध से ?
न्याय करो मेरा, कहो दासी क्या तुम्हारी हूँ मैं
दांव पे लगाया मुझे बोलो किस बुद्धि से ?
हारे राज पाट, भाई बन्धु, निज जाया आज
बने यों विवश किसे देखते हो क्रुद्ध से।। 9।।