द्रुपद सुता-खण्ड-17 / रंजना वर्मा
उंगली उठा के कुछ, कहने लगा जो कर्ण,
द्रौपदी को याद आयी, श्याम की वो उंगली।
गिरि को उठाने वाली, ब्रज को बचाने वाली,
सबको नचाती घनश्याम की वो उंगली।
चक्र की अगम गति, घायल हुई थी कभी,
रक्त से भरी थी अभिराम की वो उंगली।
नाता नया जोड़ गयी, आँचल को फाड़ा जब,
बाँधी द्रौपदी ने चारो, धाम सी वो उंगली।। 49।।
मन विश्वास की थी, प्यारी सी लहर उठी,
उंगली उसी की मेरी, लाज भी बचायेगी।
जग को नचाने वाली, प्रेमी को रिझाने वाली,
आज अभिमानियों को, बहुत नचायेगी।
कोई सुन पायेगा न, आतुर पुकार पर,
श्याम के श्रवण में पुकार मेरी जायेगी।
रानियों की सुख शय्या, सोया हो भले ही उसे,
अबला की व्याकुल पुकार ये जगायेगी।। 50।।
करती पुकार हाथ, जोड़ यही बार बार,
'दौड़ो घनश्याम' कैसी, हुई दुखियारी थी।
आयत नयन रहे, बरस थे झर-झर,
बाँह को उठा के रोती, पांडवों की नारी थी।
मारते पराये लेती, शरण तो अपनों की,
किस को पुकारे वह, अपनों की मारी थी।
अपने सभी थे पर, कितनी अकेली थी वो,
रक्षक अनेको पर, फिर भी बिचारी थी।। 51।।