भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्रुपद सुता-खण्ड-33 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गोमुख से द्रौपदी के, मुख से निकल बही,
नाम-गङ्गा सभा में, हहर उठी साँवरे।
तोड़ती करार कारे, कूल औ किनारे सारे,
नगर डगर पेबिखरउठी साँवरे।
टेरते नगर जन, आकुल विकल मन,
जन-जन-मन में लहर उठी साँवरे।
विपदा हटाने आओ, मृतो को जिलाने आओ,
करकरविनयसिहरउठी साँवरे।। 97।।

व्याकुल हवायें सब,अभिशप्त दिशा सब,
आकुल विकल लगी, श्याम श्याम टेरने।
रुक रहीं सांसें और, उमड़ी उसासे सारी,
रोम रोम टोह लगी, श्याम नाम हेरने।
घुमड़ घुमड़ कर, घटा सी पुकार वह,
उमड़ उमड़ लगीं, श्याम-शशि घेरने।
लगता था मुग्ध किसी, सोये शिशु शशक को,
बींधा था अचानक ही, बाण से अहेर ने।। 98।।

कारे कारे कजरारे, मेघ घिर आये नभ,
चपला चमक उठी, बादलों को चीर के।
तपता प्रचंड चंड, बन के प्रताप ताप,
घायल हुआ आघात, खा के इस पीर के।
देख के वधू की दशा, रोष दिखलाता वायु,
लज्जित थे सुराधिप-नयन शरीर के।
अश्रु अबला के थे या, प्रलय सघन घन,
घन से बरसते थे, बिंदु या कि नीर के।। 99।।