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द्वितीय सोपान/ देवाधिदेव / जनार्दन राय

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पंथ में इतिहास कहते शम्भू विविध प्रकार,
आ गए कैलाश सब विधि शान्ति थी साकार।
प्रण समझ अपना विराजे शम्भू सुख-आगार,
बैठ वटतर कमल आसन हृदय विश्वाधार॥
सहज रूप सम्हार शंकर ध्यान में तल्लीन,
थी अखण्ड समाधि जिसमें हुए शंकर लीन।
उद्देश्य इस समाधि का भी था परम पावन,
सती को विश्राम हो सुख मिले मन-भावन॥
महा मौन दयालु शंकर से प्रभावित सती,
याचना की ब्रह्म से निष्ठा व्रती दृढ़ सती।
जन्म जब-जब मिले हो शिव चरण-पद अनुराग,
शम्भूमय संसार दीखे मिले ऐसा भाग॥

शिव चरित्र प्रसंग यह
है पूर्ण अपने आप में।
कृपा, निष्ठा, न्याय, सोना
चमक पाये ताप में॥

कौन मानेगा नहीं,
शिव चरित था अनुपम।
सत्य, शील पवित्र,
उद्घोषित हुआ निरुपम॥

सती ने अर्पण किया,
निज देह पावन आग को।
लगे करने तीर्थ शिव,
तज परम प्रिय कैलाश को॥

बांटते थे ज्ञान की,
गाथा भ्रमित संसार को।
कथामृत रहते पिलाते,
सन्त श्रोता वृन्द को॥

सती ने जब से किया,
निज देह का था त्याग।
शंभु-मन में तभी से,
जागा महान विराग॥

लगे जपने सदा
रघुनायक पवित्र सुनाम।
सुख मिला उनको सदा
सुन राम का गुण-गान॥

विचरते थे धरा पर धर,
हृदय हरि अभिराम।
काम मद औ लोभ से
थे विगत शिव सुख-धाम॥

कहीं देते सन्त को थे
ज्ञान का उपदेश।
कहीं वर्णन राम-गुण कर
मिटाते थे क्लेश॥

रह अकाम सेवक हित,
बन जाते सकाम भगवान।
भगत विरह दुख दुखित सदा,
रहते सुख धाम सुजान॥

वैराग्य भरे स्वर में शिव का
है भिन्न रूप परिलक्षित।
उदासीनता दीख न पड़ती,
मन रहता है हर्षित॥

वैरागी का सदा शुस्क जीवन व्यतीत होता है।
करते जन-कल्याण, न शिव का हृदय कभी रोता है॥
वैराग्य पूर्ण वेदान्त कथा में रस न मिला शंकर को।
राम कथा रसवन्ती धारा सुख देती थी मन को॥
अवगाहन करते रहते थे हरि-गुण की गंगा में।
अविरत सुखानुभूति होती थी रसवन्ती धारा में॥

देखा शिष्य मुभुण्डी को
कथा सुनाते प्रभु की।
स्वयं हंस बन कथा-श्रवण
करने जाते थे हरि की।

सुखद संस्मरण लगे सुनाने,
स्नेहिल अति गिरिजा को।
सरस सहज सद्भाव
प्राप्त होता मैना-तनुजा को॥

हुई अवतरित दक्ष-सुता बन,
प्रथम-प्रथम इस भू पर।
विश्व विदित थी सती नाम से
तुम पावन धरती पर॥

पिता यज्ञ में मिला तुम्हें
अतिशय अनुचित अपमान।
क्रोध विवश हो तुमने तत्क्षण
दिये त्याग निज प्राण॥

मेरे अनुचर ने तब जाकर
किया यज्ञ था भंग।
ज्ञात तुम्हें हैं पूर्व जन्म के
ये सब कथा-प्रसंग

चिन्ता से भरता जाता था
तब उर, तन, मन मेरा।
प्रिये नहीं सहन होता था
दुख वियोग का तेरा।

सरिता, पर्वत, वन, उपवन,
थे सुन्दर बिमल तराग।
कौतुक देखा करता था मैं
मन में भरा विराग॥

उत्तर दिशि स्थित सुमेर
पर्वत की थी दूरी।
नील शैल अति भव्य
दीख पड़ती थी सुन्दर भूरी।

उसके स्वर्णिम शिखर मनोहर
अति पावन लगते थे।
चार मनोहर तरुवर लख कर
मन न कभी थकते थे॥

उन पर स्थित शोभा रहे थे
बिटप अनेक विशाल।
वट, पीपल, पाकड़ आकर्षक
सुन्दर सरस रसाल॥

शैलों पर सर एक अनूठा
सुन्दर शोभ रहा था।
मणि-सोपान भव्य उसका
मन मेरा मोह रहा था॥

शीतल, अमल, मधुर जल में
थे खिले जलज बहुरंग।
हंस वहां करते थे कलख,
गुंजन मंजुल भृंग॥

उस सुन्दर पर्वत के ऊपर
रहता था वह काग।
नाश कभी कल्पान्त न होगा
ऐसा उसका भाग॥

माया कृत गुण, दोष, मोह
छाये सर्वत्र अनेक।
उस गिरि पर थे पहुँचन पाते,
कभी दुखद अविवेक॥

वहां बैठ हरि को भजता था,
जैसे निर्मल काग।
उमा सुनो उसकी गाथा तुम
सहित परम अनुराग॥

पीपल तरुतर बैठ सदा
वह ध्यान किया करता था।
पाकड़ि तरुतर बैठ सदा,
वह यज्ञ-जाप करता था॥

आम्र-छाँह में चलती रहती
थी नित मानस-पूजा।
तजि हरि-भजन वहाँ चलता था
काज न कोई दूजा॥

चलते रहते थे बट-तर
हरि-कथा अनेक प्रसंग।
जाजा कर सुनते थे सुन्दर
कथा अनेक विहंग॥

राम चरित्र भक्तिमय स्वर में
थे वहाँ सुनाये जाते।
प्रेम सहित गाते रहने में
मन थे नहीं अघाते॥

विमल बुद्धि वाले मराल
जो वहाँ रहा करते थे।
अति प्रसन्न हो कथा निरन्तर
वहां श्रवण करते थे॥

मैंने जब जा उस कौतुक को
अपनी आँखों देखा।
उर उपजा आनन्द अमित
उसका न रहा कोई लेखा॥

तब मराल तन धारण कर
मैंने भी किया निवास
सादर सुन रघुपति गुण-गाथा
तब आया कैलाश॥

परिचय दिये बिना भुशुण्डि
से सुना कथा रसपूर्ण।
अभिमान शून्य पावन हिय
था परम प्रेम से पूर्ण॥

सदा अमानी शिवने
चाहा कभी नहीं सम्मान।
दिया अन्य को सदा
सदीच्छा शुभ कर्मों का मान॥

जन्मी सती हिमालय गृह जा
पार्वती धर नाम।
नारद प्रेरित आशुतोष हित
तप करना था काम॥

प्यार करते थे सती से शिव नहीं सन्देह,
पिता की जड़ बुद्धि से थी सिक्त उसकी देह।
मानसिक संस्कार उसका सदा था सविकार,
शिव मनः स्थिति में नहीं हो सकी एकाकार॥

समृद्धि सम्मान प्राप्त थे महान जिसके जनक,
हुआ परिणय देव से गणना गने थे गनक।
भिन्न थे संसार से पर पूर्ण अपने आप,
पुण्य था उसके लिए जग के लिए था पाप॥

मुण्ड की माला चिता का भस्म था अपवित्र,
मूर्खता थी दक्ष की माना नहीं जो अपवित्र।
शंभु ने दी प्राथमिकता हृदय की अनुभूति को,
सती ने था श्रेष्ठ माना तर्क और वितर्क को॥

शैलजा ने तप किया था पति बनाने शम्भु को,
और निश्चय शिव किये थे दूर रखने आपको।
भाव की दूरी मिटाने राम आये शंभु ढिग,
पा निकट भगवान को शंकर न रह पाये अडिग॥

राम परम कृपालु प्रगटे रुप शील विधान ले,
तेज निधि सम्पन्न आये जला दिव्य मशाल ले।
व्रत सराहे शम्भु के अनुपम अतूल अपार कह,
थे निभाये प्रेम सचमुच प्रेम पन अविच्छिन्न रह॥

राम ने समझा बुझा,
बहु विधि बताया तथ्य शिव को।
पार्वती के जन्म की,
सुधि भी दिलायी महा शिव को॥

पार्वती पुनीत तप को,
रमापति ने था बखाना।
था विमल उद्देश्य कितना,
शम्भु ने भी था न जाना॥

दे दुहाई नेह की,
भूतेश से अनुरोध कर।
अनुरोध के स्वर में कहा,
गिरिजा विवाहें कृपाकर॥

अनुरोध भी स्वीकार कर,
कुछ समय तक भूले रहे।
पार्वती-प्रशस्ति सुन
प्रभु शील मग्न बने रहे॥

स्वामी शील-सनेह में डूब गये सुख मूल,
गिरिजा-पाणिग्रहण करें, बात गये यह भूल।
समझ न पाये मर्म यह, ब्रह्मा जैसे देव,
आश्रय लेने काम का निश्चय कर स्वयंमेव।

शिव की करुणा सन्तुलित बनी रही सर्वत्र,
दण्डित काम हुआ मगर रक्षित थी रति अत्र।
जला कामरति को दिया शंकर ने यह दान,
कृष्ण-तनय होंगे पति ले लो यह वरदान॥