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धत्तेरे की / तरुण
Kavita Kosh से
अन्धकार गृह आज दिवाली, जूए वाला रात जगा;
औंधे मुँह पड़ सत्य सो रहा-घर के सभी कपाट लगा!
चारों ओर न जाने कैसा मुझे लग रहा सन्नाटा,
अन्धकार ने स्वर्ण-ज्योति को जैसे मार दिया चाँटा!
सरेआम अब सत्य पिट रहा अन्धकार के कोड़े से,
क्या बोलें दुर्बल साक्षी बेचारे तारे थोड़े से?
हंस उड़ गये मरुस्थलों में, कोयल दूर छिपी वन में,
कौए गाते राग प्रभाती, अन्धकार के मधुवन में!
अन्धकार ने बिछिये पहने, सूरज पर छाये जाले,
बगुले गाते जैजैवन्ती, अलियों के मुख पर ताले!
अन्धकार की पौ बारह है, पांचों उँगली अब घी में,
स्वर्ण सुअवसर आया, करने-जो कुछ भी आवे जी में!
मान गये हम मान गये हाँ-पक्की विजय अँधेरे की!
क्या मुकाबला अन्धकार से सूरज का-धत्तेरे की!
1976