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धन्य बाड़ू हे धनी / कुमार वीरेन्द्र

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ई पार नइहर ऊ पार ससुराल

चले मुकुटलाल
गोड़े-गोड़ कि तिरछे आधे घण्टे की दूरी
जो घूमत-फिरत-चलत कब कट जाए, जाने राह न पहुँचने की चाह, अपनी
पियरिया की बात मान, लिए हियरा में हिलोर, चले मुकुटलाल सुर्ती दबाके
फुर्ती जगाके दुलकी चाल, और पियरिया का क्या, ऊ तो
बने लहरिया, पुरवइया जइसन गिरत ना
भहरात, पकड़े मुकुटलाल
का हाथ

दुलकी में दोल्हत चलत जात

मुकुटलाल कहे
'चलऽ हे धनी, बना जो नयका पुल, इससे
पार', कहे पियरिया, 'सुनऽ हमार मुकुटु हो, ई नदिया हेलल बीतत बात, लगाव नाहीं
अड़ँगा, छपकत लाँघत जीयत बात, पुलवा का क्या, इक टूटा दूसर बना, पर नदिया
का क्या, जो रोज़ गते-गते सुखात जात, लाँघ रहे दुनो प्राणी
पैजामा-साड़ी सरका, कि नदिया अब कहाँ
डुबाह, घुटने-भर की थाह
छपछपावत

हलकोर उठावत, तनि सुर में सुर मिलावत

लाँघे नदी तो देख रहे
बाँध नीचे आपन खेत में ससुरा साँड़ फ़सल चर
रहा, मुकुटलाल तो चला ही रहे ढेले पे ढेला, पियरिया को भी का तो सूझा, बिन कुकुर लियो-लियो
किया ललकार, साँड़ की क्या मजाल, जो चरता रहे, पीठ पर बैठी चिरइयों से, अँठई चुगवाते, बाँध
पर चढ़े तो पियरिया को दिखी, भेड़ियों की लेंड़ी, फिर तो चहक गई कि अहा
लेंड़ी की ऐसी आग, लिट्टी पके सोन्ह-सोन्ह लिये मिठास
ई अउर बात, खिसियाए मुकुट, 'तोहार न
नइहर, हमार तो ससुराल
एक तो

पाव-भर मिठाई न हाथ, ऊपर से लेंड़ी उठावत जात'

ताड़ गई पियरिया
'हमार मुकुटु को पेड़ा चाहिए, लेंड़ी ना रे रामवा'
और उतरे बाँध से तो देखो पियरिया की शान, जानती है इहाँ से ख़तम ससुराल का सिवान, अबकी
तनि न सुनी, बैगन के खेत में घुस तोड़ने लगी, बग़ल के खेत से टमाटर, मुकुट कह-कह, गड़े जा रहे
'अरे अब बस करो, महरानी, देखा किसी ने, तोहे गाँव की बेटी जान कहे न कहे
इत्ता तो जरूर सोचेगा, ई दामाद है कि बउँचट रे, छँवड़ी को
बना रखा है बेकहल', पर का करें मुकुटलाल
कि पियरिया से बहुत कुछ
कहा न जाए

कहे से लागे ठेस तो रहा न जाए

गमछी में बाँध बैगन
टमाटर, लटकाए पीठ पाछे चले जा रहे
आँचर लहराए, चली जा रही पियरिया, कि कवन तो सूझी मस्ती, अचक्के में, ऐसी
मारी सीटी, जो बधार में कर रहे कटनी, गढ़ रहे घास, अकबका गए, कि ई किसके
लिये किसने मारी सीटी ? और मुकुटलाल ?, ऊ तो, ऊ तो पता
ना लाज कि खीस से भूत, बस दुनो हाथ जोड़े
इहे कह पाए, 'तू धन्य बाड़ू, धन्य
बाड़ू हे धनी

तू धन्य बाड़ू...!'