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धर गए मेंहदी रचे / किशन सरोज

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धर गए मेंहदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल सा हिलता रहा मन

बाँचते हम रह गए अन्तर्कथा
स्वर्णकेशा गीतवधुओं की व्यथा
ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल-सा हिलता रहा मन

जंगलों का दुख, तटों की त्रासदी
भूल सुख से सो गई कोई नदी
थक गई लड़ती हवाओं से अभागी नाव
और झीने पाल-सा हिलता रहा मन

तुम गए क्या जग हुआ अन्धा कुआँ
रेल छूटी रह गया केवल धुआँ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
हाथ के रूमाल-सा हिलता रहा मन