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धरती-सी विरहिन / आकृति विज्ञा 'अर्पण'

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चैत शब्द आते ही
मन में उपराया महुआ
हरा शब्द आते ही
मन हो गया सावन
किसी ने बोला प्रेम
औ' मैं हो गयी तुममय।
कजरौटे का काजल देखा
कालिख उसमें भरा समाया
आँखों में जो लगा नहीं
वो काजल हो ही ना पाया
उस काजल का स्वर हो तुम
जो आँखों की राह निहारे
ये दो आँखें हुई तुम्हारी
आओ न ! अब काजल कर दो।
एकदम तुम्हारी याद सरीखे
आषाढ़ के ये गरजते बादल
बरखा होती ही नहीं
तुम पास आते ही नहीं ।
बड़ा योगदान है पेड़ों के कटने का
धरती को बारिश से दूर रखने में
पाप लगेगा उनको
जिन्होंने काटे पेड़
बिछड़ा दिये प्रेमी ।
मान लिया आयेगा सावन
लगेंगे फिर से पेड़
याद रखना! गिरी है जितनी बिजली
सब आँसू टकरायें हैं
"धरती" नामक विरहीन के।