धरती का आकर्षषण / प्रतिभा सक्सेना
मैं इसको छोड़ कहाँ जाऊँ ,इस धरती का आकर्षण है !
ऊँचे पर्वत , गहरे सागर ,ये वन सरितायें ,ग्राम-नगर
ऋतुओं के नित-नित नये रूप इन सब में रमती हुई -डगर!
ये ज्योतिर्मय आकाश और ये ऋतंभरा रमणीय धरा -
इन सबसे ममता है मेरे इस माया-मोह भरे मन की ,
जिसने सिरजा साकार किया सिर पर उस माटी का ऋण है !
उन्मुक्त हँसी के कुछ पल भी धो जाते सारी कड़ुआहट ,
कुछ तन्मय पल भी डुबो-डुबो लेते हैं अपनें में सुध-बुध !
अन्तर में उठते तूफानों का मूल कहाँ ढूँढूँ जाकर
कोई उत्तर पा जाने की आशा ले बैठी हूँ रुक कर !
जाने की बात करूँ फिर क्यों जब मिला नहीं आमंत्रण है !
जो व्यक्त हो रहे अनायास मेरे वह स्वर सुननेवाला ,
जो अर्थ जानता केवल मन ,कोई उसको गुनने वाला,
मैं तुम को छोड़ कहाँ जाऊं , टेरते अहर्निश ,दुर्निवार !
प्रतिध्वनि रह रह कर टकराती अंतर्मन के झनझना तार !
उस पार व्यक्ति का हो जाना जैसे सबसे निष्कासन है !
सारे संबंध न जाने क्यों अक्सर ही बेगाने लगते !
इन राग-विराग भरे गीतों के बोल मुझे थामे रहते ,
फिर वहाँ किस तरह साध सकूँगी अपना साँसों का सरगम !
उस ओर अनिश्चित है सब कुछ किस तरह सधेगा उचटा मन
कडुवे-मीठे खट्टे अनुभव का अपना हिस्सा क्या कम है !
इन सबसे अगर किनारा कर मैं भी चल दूँ हो अनासक्त
जिनकी वाणी फूटी न कभी वे फिर रह जायेंगे अव्यक्त
इस कर्म भूमि में कहीं न निष्क्रिय कर डाले संचित विषाद
कर सका पलायन कौन यहाँ, वैराग्य सिर्फ़ मन का प्रमाद
तृष्णायित मृग सा व्याकुल मन उलझा जिसमें यह जीवन है
सब पाप -पुण्यफल यहीं सुलभ ,अपना परलोक यहीं लगता ,
मेरे भगवान यहीं बसते .मुझको ते स्वर्ग यहीं दिखता !
मेरे तो सारे तार यहीं से जुड़े और संचालित भी ,
बाहरी जगत के भीतर ही मन का संसार बहुत रुचता ,
कुछ अता-पता मालूम नहीं वह लोक मुझे लगता भ्रम है !
ये शब्द, रूप, रस, गंध, परस, आनन्द-रूप प्रभु का प्रसाद !
इस राग भरे अंतर में उतर न आये पल भर में विराग !
गोरस की गागर मानव तन ,पकता सह सहकर घोर तपन
भर दिया उसी में उफनाती कितनी सरिताओं का संगम ,
गागर रीती रह जाय न ये जितना पा लें उतना कम है !
कितने मंथन के बाद मिला कैसे सहेज रक्खे ग्वालन ,
कंकरी मार गागर फोड़ी ,ले महाचोर भागा माखन
बहुरूपी नटनागर की नित छुप-छुप दधि- माखन की चोरी ,
किस आकर्षण से खिंची चली आती फिर भी ब्रज की भोरी !
मनमानी रोक सके उसकी किसने पाया इतना दम है!