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धरती का व्याकरण / कुमार कृष्ण
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आखिर कितने लोग हैं जो
लिफाफे में भर कर छुपाते हैं अपना दुःख
कितने लोग हैं जो
अगली सुबह के लिए बचाकर रखते हैं
रात की आग
कितने लोग हैं जो
कम्बल में छुपा कर रखते हैं बुजुर्गों का बचपन
कितने लोग हैं जो
बीजों की रखवाली में काट देते हैं पूरी उम्र
ऐसे लोगों की कमी नहीं
जिनकी सत्तू से बात करते
कट जाती है पूरी यात्रा
जो पढ़ लेते हैं नंगे पैरों से
धरती का व्याकरण
जब तमाम लोग डूबे होते हैं सपनों की आकाशगंगा में
वे चल रहे होते हैं नींद में उम्मीद की बोरियों के साथ
दोस्तो
दुःख और दरिद्रता का रिश्ता
उतना ही पुराना है
जितना हल और बैल का
जितना बैल और खेत का
जितना खेत और किसान का
जितना किसान और दुकान का।