भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती से राखी बंधवाने चंदा आया है / राघव शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आसमान से उझक उझक कर
अपना रूप निहारे
धवल चमकता चीर लपेटे
उतरा नदी किनारे
भाई ने जो दिया वचन था आज निभाया है
धरती से राखी बंधवाने चंदा आया है

धरती ने जब देखा भाई
आया है चौखट पर
बैठा राह निहार रहा है
नदिया के पनघट पर
हवा चली है धूल उड़ी है तिलक लगाया है

फिर स्वागत में खिली कुमुदनी
मुसकाई हर पाखी
नदिया ने भी नीलकमल की
शीश चढ़ा दी राखी
नीला मुकुट पहन चंदा का मन हरषाया है

दीपक बहता हुआ ठिठककर
लगा आरती करने
नदी किनारे मीठा महुआ
लगा अचानक झरने
धरती ने भाई का मुंह मीठा करवाया है