धानेपुर का क़िला / शचीन्द्र आर्य
एक
दरअसल यह धानेपुर का क़िला नहीं हमारी नानी का घर है।
हम सुबह-सुबह छत से नीचे उतर रहे हैं और नानी
फूले की बटुली में अरहर की दाल को चुरते हुए देख रही हैं।
बिन ब्लाउज़ अपने शरीर पर साड़ी लपेटे, ऐसी बूढ़ी औरतों को सबने ख़ूब देखा है,
उनमें दिखने वाले चेहरे जैसी ही हमारी नानी दिखती थीं—सपाट, साधारण और वृद्ध।
अम्मा रात भर मयके में रुकने के बाद इस सुबह वापस चल पड़ेंगी।
क्या उन्हें नानी का घर धानेपुर याद नहीं आता होगा?
अपने मामा के यहाँ जाना, हर शाम पानी-बतासे खाना।
याद उन्हें इस घर की भी बहुत आती होगी।
सामने इस बहुत ऊँचे इमली के पेड़ पर चढ़ने से लेकर
बगल में चाची के यहाँ लगे पेड़ से अमरूद तोड़ने की याद तक।
दो
माँ का बचपन हमेशा उसके बच्चों से छिपा रहता है।
वह कुछ भी बताने की हिमायती कभी नहीं रहतीं।
हमारे पास भी उन स्मृतियों के पुख्ता चिह्न नहीं हैं,
सिर्फ़ थोड़े से कयास हैं। थोड़ा कल्पना का पुट है।
हमारी मौसी हमारी अम्मा से बड़ी थीं या छोटी, कभी पूछ नहीं पाया।
ससुराल में पीटे जाने के बाद वह कभी ठीक नहीं हो पाईं। एक दिन मर गईं।
नाना भी इसी में रच गए।
वह हमारे वहाँ आने पर हर बार छत डलने और उसी वक़्त बारिश
आ जाने की बात क्यों बताते रहे, हम उनके चले जाने के बाद भी समझ नहीं पाए।
तीन
कभी लगता, हमारे ननिहाल में बस एक क़िले की ज़रूरत थी।
क़िला होता, तो उसके रख-रखाव के लिए कुछ मुलाज़िम होते।
एक बड़ा-सा दरवाज़ा होता। गश्त लगाते पहरेदार होते।
उन्हीं पहरेदारों में से कोई हमारे मामा के सल्फ़ास खाने से पहले पहुँच जाता और वह रुक जाते।
इतना ही नहीं, उनके होने से बहुत कुछ बचा रहता।
ससुराल में प्रताड़ित होने पर मौसी भाग कर क़िले में आ जातीं।
नाना की हैसियत तब अपनी बेटी को घर पर रख लेने की होती।
मामा पेड़ पर क्यों चढ़ते,
क्यों उनके पैर में लचक आती,
उनकी जगह कोई और चढ़ता।
क्यों नानी तब हर बीफय खुटेहना बाज़ार करतीं।
तब बड़े-बड़े खेत होते। घर में अनाज होता।
जैसे यह क़िला कहीं नहीं है,
वैसे अब हमारा नानी घर भी कहीं नहीं है। ए