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धीरे-धीरे / केशव
Kavita Kosh से
धीरे-धीरे ही
होता सब कुछ
धीरे-धीरे
आदमी पहुँचता
धरती से चाँद पर
धीरे-धीरे ही
बनता इतिहास
धीरे-धीरे ही
नदी पहुँचती समुद्र के पास
धीरे-धीरे ही
सच की बगल में बैठकर
झूठ भी ओढ़ लेता
सच का लिबास
धीरे -धीरे ही
अंधेरे के गर्भ में
जन्म लेता उजाला
धीरे-धीरे ही
सुलगती चिंगारी
बन जाती आग
हवा झुलाती जिसे
अपने पालने में
ले जाती एक से दस
दस से सौ
सौ से हजारों के पास ।