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धीरेे-धीरे संध्या है आ रही / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

धीरेे-धीरे संध्या है आ रही,
एक-एक करके सब ग्रन्थियाँ हैं खुल रहीं
प्रहरों के कर्म जाल से।
दिन ने दी जलांजलि, खोलकर पश्चिम का सिंहद्वार
स्वर्ण का ऐश्वर्य उसका
समा रहा आलोक अन्धकार के सागर संगम में।
दूर प्रभात को नतमस्तक हो कर रही नीरव प्रणाम है।
आँखें उसकी मुदी आती, आ गया समय अब
गंभीर ध्यान मग्न हो इस बाह्य परिचय को तिलाजंलि देने का।
नक्षत्रों का शान्ति क्षेत्र असीम गगन है
जहाँ ढकी रहती है सत्ता दिनश्री की,
अपनी उपलब्धि करने वहीं सत्य जाता है
रात्रि पारावार में नाव दौड़ाता है।

‘उदयन’
मध्याह्न: 16 फरवरी, 1941